समुद्र मंथन भारतवर्ष की एक प्राचीन घटना है जिसका उल्लेख महाभारत पुराण में भी मिलता है। समुन्द्र से अमृत की उत्पत्ति कैसे हुई इस बात का वर्णन निचे दिया गया है।
समुद्र मंथन की कथा(Samudra Manthan Story in Hindi)
प्राचीन काल में एक बार महर्षि दुर्वासा ने देवराज इंद्र समेत सभी देवताओं को अपने श्राप से शक्तिहीन कर दिया और उसी काल में दैत्यों के राजा बलि ने शुक्राचार्य से शक्ति प्राप्त कर देवों पर हमला बोल दिया। सभी देवता गण शक्तिहीन होने के कारण युद्ध हार गए एवं उन्हें स्वर्गलोक से पलायन करना पड़ा। अपना राज-पाट एवं स्वर्ग छूट जाने के पश्चात सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में चले गए और उनसे सहायता मांगी। भगवान विष्णु ने देवराज Indra को समुद्र मंथन कर अमृत पाने का निर्देश दिया एवं कहा की वे असुरों के पास जाकर उनसे समझौता करें और समुद्र मंथन में सहायता करें। जब मंथन से अमृत की प्राप्ति होगी तो देवता उसे ग्रहण कर अमर हो जाएंगे और फिर युद्ध में असुरों को हराना सरल हो जाएगा।
भगवान विष्णु के निर्देशानुसार सभी देवता राजा बलि एवं उनके असुर साथियों के पास गए तथा उन्हें समुद्र मंथन एवं अमृत की बात बताई। इस पर राजा बलि समझौता करने के लिए तैयार हो गए तथा समुद्र मंथन के लिए अपनी स्वीकृति दे दी।
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समुद्र में मंथन करने के लिए मंदराचल पर्वत का चुनाव किया गया तथा रस्सी या नेति के रूप में वासुकि नाग का चयन किया गया। भगवान Vishnu स्वयं कच्छप अवतार लेकर समुद्र में चले गए और मंदराचाल पर्वत को आधार दिया। समुद्र मंथन शुरू होने से पहले देवता गण वासुकि नाग के मुख की और चले गए, इस पर असुरों ने ऐतराज दिखाते हुए कहा की हम सर्व शक्तिमान हैं इसलिए वासुकि नाग को मुख की और से असुर ही पकड़ेंगे।
देवता गण बिना कुछ कहे पूंछ की और चले गए। भगवान नारायण ने वासुकि नाग को गहरी निद्रा में भेज दिया जिससे की उन्हें किसी कष्ट का अनुभव न हो।भगवान कच्छप की विशाल पीठ पर मंथन प्रारम्भ हुआ।
समुद्र मंथन में सर्वप्रथम हलाहल या कालकूट विष उत्पन्न हुआ। इस विष के धूम्र के प्रभाव से ही देवता एवं असुर मूर्छित होने लगे। देवताओं एवं असुरों के आवाह्न पर भगवान Mahadev प्रकट हुए एवं उस कालकूट विष का सेवन किया। उन्होंने वह विष अपने कंठ से निचे नहीं उतरने दिया जिसके कारण उनका कंठ नील वर्ण का हो गया और उनका नाम Nilkanth रख दिया गया। मंथन फिर से प्रारम्भ हुआ और दूसरा रत्न माता कामधेनु गाय के रूप में प्रकट हुआ जिसे ऋषियों को दान कर दिया गया। तीसरा रत्न उच्चैःश्रवा नामक श्वेत वर्ण के घोड़े के रूप में प्राप्त हुआ जिसके सात सर थे। इसे असुरों के राजा बलि ने रख लिया। चौथा ratna ऐरावत हाथी के रूप में उत्पन्न हुआ जिसे देवराज इंद्र ने रख लिया। पांचवा रत्न कौस्तुभमणि के रूप में उत्पन्न हुआ जिसे देवों और असुरों ने भगवान विष्णु को भेंट किया। इसी प्रकार छठवाँ ratna पारिजात वृक्ष (कल्प वृक्ष), सातवां रत्न रम्भा अप्सरा, और आठवाँ रत्नदेवी लक्ष्मी के रूप में प्रकट हुआ। देवी लक्ष्मी ने स्वयं से ही Bhagwaan विष्णु का चयन किया और उनके पास चली गयीं।
नौवां रत्न मदिरा, दसवां रत्न चन्द्रमा, ग्यारहवां रत्न सारंग धनुष, और बारहवां रत्न शंख के रूप में उत्पन्न हुआ। भगवान धन्वंतरि स्वयं तेरहवें रत्न के रूप में अपने हाथ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए जो की आखरी और चौदहवां रत्न था। इस प्रकार समुद्र मंथन से चौदह रत्नों की प्राप्ति हुई।
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अमृत के प्रकट होते ही सबमे विवाद होने लगा की अमृत पहले कौन ग्रहण करेगा तब भगवान् विष्णु ने देवी मोहिनी का रूप धारण कर देवताओं और असुरो को मोहित कर लिया और चालाकी से अमृत (अमृत in english is also called as ambrosia) देवों में बाँट दिया और वहां से विलुप्त हो गए। असुरों को जब इसका पता चला तो वे सब क्रोधित हो गए और देवताओं पर आक्रमण कर दिया। परन्तु अमर हुए देवताओं ने शक्ति पाकर असुरों को हरा दिया और अपना देवलोक (स्वर्ग) प्राप्त कर लिया।
समुद्र मंथन का मुख्य प्रतीकवाद (significance) यही है की जीवन में परिस्थतियाँ कितनी भी बुरी क्यों न हों कभी भी निराश नहीं होना चाहिए। जीवन में कोई न कोई मार्ग अवश्य निकल जाता है और स्थिति पहले जैसी हो जाती है। और बुराई पर अच्छाई की हमेशा विजय होती है।
बहुत ही बढ़िया लेख लिखा है आपने। हमारे साथ साँझा करने के लिए आपका धन्यवाद !
अपने इस लेख में समुद्र के मंथन की बहुत ही अच्छी कथा को शेयर किए हैं। वाह क्या बात है बहुत ही अच्छा लगा । धन्यवाद सर इस बेहतरीन जानकारी को publish करने के लिए
bahut hi badiya tarike se bataya hai sir apne iske liye ek Thank you to banta hai mera.
Post tu kafi mast ha
I get more knowledge from your post.